झारखंड विधानसभा चुनाव में मतदान का दिन जैसे जैसे नज़दीक आ रहा है, वैसे वैसे राजनीतिक बयानबाज़ी घमासान रूप ले रही है. इस बहस में समान नागरिक संहिता का मुद्दा भी गरमा रहा है.
राज्य चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का चुनावी घोषणा पत्र जारी करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, “हमारी सरकार झारखंड में ‘समान नागरिक संहिता’ (यूसीसी) लागू करेगी, लेकिन आदिवासियों को इसके दायरे से बाहर रखा जाएगा.”
उनकी इस टिप्पणी के जवाब में राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा, “झारखंड में सिर्फ़ छोटा नागपुर काश्तकारी (सीएनटी) और संथाल परगना काश्तकारी (एसपीटी) अधिनियम ही चलेंगे, न कोई यूसीसी चलेगा न एनआरसी.”
इसको लेकर राज्य में दो तरह की चर्चा शुरू हो गई है, एक तो क्या बीजेपी राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए यूसीसी के मुद्दे को हवा दे रही है, और अगर ऐसा है तो इसके दायरे में आदिवासियों को क्यों बाहर रखा जा रहा है. ज़ाहिर है कि इन सबको चुनाव से भी जोड़कर देखा जा रहा है.
क्या कहते हैं जानकार?
क़ानून के जानकार अधिवक्ता शादाब अंसारी यूसीसी को परिभाषित करते हुए कहते हैं, “यूसीसी लागू होने पर विवाह, तलाक़, बच्चा गोद लेना और संपत्ति के बंटवारे जैसे विषयों में भारत के सभी नागरिकों वह चाहे किसी भी जाति या धर्म से हों, उनके लिए एक जैसे नियम होंगे.”
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क्या है पेसा एक्ट?
पेसा क़ानून का पूरा नाम है- पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरियाज़ एक्ट.
1986 में पंचायती राज व्यवस्था में अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार करते हुए पेसा क़ानून की शुरुआत हुई.
इस क़ानून में कहा गया है कि आदिवासी क्षेत्रों में आने वाले इलाक़ों में देश के सामान्य क़ानून लागू नहीं होंगे और यहां पेसा क़ानून लागू होगा.
इस क़ानून के तहत आदिवासी समाज की परंपराओं और रीति-रिवाजों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संसाधनों और विवाद समाधान के प्रथागत तरीके की सुरक्षा और संरक्षण की ज़िम्मेदारी ‘ग्रामसभा’ को दी गई है.
प्रभाकर तिर्की कहते हैं, “क़ानून के कारण आदिवासी समाज को यूसीसी से अलग रखा जाएगा. लेकिन कैसे भरोसा किया जाए कि भविष्य में यूसीसी जबरन आदिवासियों पर लागू नहीं किया जाएगा?”
प्रभाकर तिर्की से सहमत गिरिडीह के विधायक सुदिव्य कुमार सोनू कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी आदिवासियों को यूसीसी से अलग रखने का जितना भी दावा करे, लेकिन यूसीसी लागू होने के बाद सबसे अधिक असर आदिवासियों और उनके अपने परंपरागत क़ानून पर पड़ेगा.
लेकिन भाजपा प्रवक्ता प्रतुल शहदेव इस आरोप पर कहते हैं कि “हमने पहले ही कह दिया है कि आदिवासी समाज यूसीसी से बाहर है, ऐसे में उनके कस्टमरी लॉ से कोई छेड़छाड़ नहीं होगी.”
झारखंड हाईकोर्ट के अधिवक्ता शादाब अंसारी पूछते हैं कि “अगर यूसीसी बना रहे हैं तो उससे कुछ समाज/धर्म को अलग रखे जाने की बात कही जा रही है, ऐसे में सिविल कोड यूनिफार्म कहाँ रहा?”
इस सवाल पर भाजपा प्रवक्ता कहते हैं, “आदिवासी समाज का इतिहास दस हज़ार साल पुराना है. लेकिन वे तरक्की नहीं कर सके.”
उन्होंने कहा, “ऐसे में उनके विकास के लिए आवश्यक है कि उनको उनके कस्टमरी लॉ के अनुसार जीवनयापन की आज़ादी मिले. जबकि शेष नागरिकों को यूसीसी के तहत यूनिफॉर्म करने की कोशिश है.”
लेकिन इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह भी उठ रहा है कि झारखंड में यूसीसी की आवश्यकता क्यों है?
इस सवाल पर भाजपा प्रवक्ता प्रतुल शाहदेव का मानना है कि जनसंघ के समय से ही यूसीसी भाजपा के नेशनल एजेंडा में रहा है.
वह कहते हैं कि “झारखंड में यूसीसी क़ानून न होने के कारण बांग्लादेशी घुसपैठिये आदिवासी समाज की भोली-भाली युवतियों को बहलाकर चार-चार शादी करते हुए लव-जिहाद करते हैं.”
उन्होंने कहा, “उसके बाद वे आदिवासियों की ज़मीन पर लैंड जिहाद करते हैं. साथ ही ये बांग्लादेशी घुसपैठिये आदिवासियों की रिज़र्व सीट पर अपनी आदिवासी पत्नी को चुनाव लड़वा कर पॉलिटिकल जिहाद करते हैं.”
वह यह भी कहते हैं कि इन ‘बांग्लादेशी घुसपैठियों’ के कारण ही झारखंड में यूसीसी लागू होना बहुत ज़रूरी है.
कथित बांग्लादेशी घुसपैठियों के सवाल पर झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायक सुदिव्य कुमार सोनू कहते हैं कि “संथाल के जिन नागरिकों को बांग्लादेशी बताया जा रहा है उनका कसूर बस इतना है कि पहले तो वे मुसलमान हैं, उस पर से वे बांग्ला भाषी हैं. इसलिए उनको बांग्लादेशी बताया जाता है, जबकि वे पीढ़ी दर पीढ़ी से संथाल में रहते आ रहे हैं, न कि वे कोई बांग्लादेशी हैं.”
ऐसे में सवाल उठता है कि झारखंड चुनाव के दौरान यूसीसी का ज़िक्र क्यों हो रहा है?
इस सवाल पर प्रभाकर तिर्की कहते हैं कि “झारखंड में यूसीसी की कोई ज़रूरत नहीं है. यूसीसी के नाम से आप मुसलमानों को निशाना बनाएंगे, और गैर-मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा के हित में करेंगे.”